
संक्षिप्त रामायण के कुछ मुख्य भाग: अरण्यकांड
वन में जीवन यापन
राम, सीता और लक्ष्मण ने चित्रकूट और फिर पंचवटी में अपने वनवास का समय बिताने का निश्चय किया। वे वन के सौंदर्य और शांति का आनंद लेते हुए अपने दैनिक जीवन के कार्यों में संलग्न थे। लक्ष्मण ने एक छोटी सी कुटिया बनाई, जहाँ वे तीनों रहते थे।
राम (लक्ष्मण से): “लक्ष्मण, तुम्हारी बनाई हुई कुटिया बहुत सुंदर है। इस वन में रहते हुए हमें एक नई तरह की शांति और सुख का अनुभव हो रहा है।”
लक्ष्मण (मुस्कुराते हुए): “भैया, आपका और भाभी का साथ ही मेरा सबसे बड़ा सुख है। मैं चाहता हूँ कि आप दोनों हमेशा सुखी रहें।”
शूर्पणखा का आगमन
एक दिन, रावण की बहन शूर्पणखा पंचवटी में आई और उसने राम को देखा। वह राम की सुन्दरता पर मोहित हो गई और उनसे विवाह का प्रस्ताव रख दिया।
शूर्पणखा (मोहित होकर): “हे राम, तुम अत्यंत सुंदर और वीर हो। मैं तुम्हारे साथ विवाह करना चाहती हूँ।”
राम (शांति से): “शूर्पणखा, मैं पहले से विवाहित हूँ और यह मेरी पत्नी सीता है। तुम मेरे भाई लक्ष्मण से विवाह का प्रस्ताव रख सकती हो।”
शूर्पणखा लक्ष्मण के पास गई और उनसे भी वही प्रस्ताव रखा।
लक्ष्मण (मुस्कुराते हुए): “शूर्पणखा, मैं अपने भाई राम का सेवक हूँ और इस योग्य नहीं हूँ।”
शूर्पणखा क्रोधित हो गई और उसने सीता पर आक्रमण करने का प्रयास किया। लक्ष्मण ने उसकी नाक और कान काट दिए और उसे भगा दिया।
खर-दूषण का वध
शूर्पणखा अपने भाइयों खर और दूषण के पास गई और अपने अपमान की कथा सुनाई। खर और दूषण ने अपनी सेना के साथ राम, लक्ष्मण और सीता पर आक्रमण कर दिया।
खर (क्रोधित होकर): “राम, तुम्हारी मृत्यु निश्चित है।”
राम (दृढ़ता से): “खर, तुम्हारे अत्याचार का अंत आ चुका है।”
एक भीषण युद्ध हुआ जिसमें राम और लक्ष्मण ने खर, दूषण और उनकी सेना का संहार किया।
मारीच का छल
रावण, शूर्पणखा के अपमान का बदला लेने के लिए सीता का हरण करने की योजना बनाता है। उसने मारीच नामक राक्षस को सोने के मृग का रूप धारण करने के लिए कहा।
मारीच ने सोने का मृग बनकर पंचवटी के पास जाकर सीता का ध्यान आकर्षित किया।
सीता (राम से): “स्वामी, यह मृग कितना सुंदर है! कृपया इसे पकड़कर मेरे लिए ले आइए।”
राम (लक्ष्मण से): “लक्ष्मण, मैं इस मृग को पकड़ने जा रहा हूँ। तुम सीता की रक्षा करना।”
राम मृग के पीछे चले गए। मृग ने राम को दूर तक ले जाकर, मारीच के रूप में चिल्लाकर “लक्ष्मण, सीता बचाओ” का आह्वान किया और मर गया।
सीता का हरण
सीता ने राम की चिल्लाहट सुनी और लक्ष्मण से उनकी सहायता के लिए जाने का आग्रह किया।
सीता (चिंतित होकर): “लक्ष्मण, तुम्हारे भैया संकट में हैं। कृपया उनकी सहायता के लिए जाओ।”
लक्ष्मण (संकोच करते हुए): “भाभी, भैया ने मुझे यहाँ आपकी रक्षा के लिए छोड़ा है। मैं उन्हें अकेला नहीं छोड़ सकता।”
सीता ने लक्ष्मण पर आरोप लगाया कि वह राम के अनिष्ट की प्रतीक्षा कर रहे हैं ताकि वे उनसे विवाह कर सकें। इस आरोप से आहत होकर लक्ष्मण ने कुटिया की परिधि में एक रेखा खींच दी और सीता को उससे बाहर न जाने का आदेश दिया।
लक्ष्मण (विनम्रता से): “भाभी, यह रेखा आपकी सुरक्षा के लिए है। कृपया इससे बाहर न जाएं। मैं भैया की सहायता के लिए जा रहा हूँ।”
लक्ष्मण के जाने के बाद, रावण साधु के वेश में आया और सीता से भिक्षा मांगने लगा।
रावण (साधु के वेश में): “हे देवी, भिक्षा दो।”
सीता ने रेखा के भीतर से भिक्षा देने का प्रयास किया, लेकिन रावण ने उसे बाहर आने के लिए मजबूर किया। रेखा से बाहर आते ही, रावण ने अपने असली रूप में आकर सीता का हरण कर लिया और अपने रथ में बिठाकर लंका की ओर उड़ चला।
सीता (विलाप करते हुए): “राम, लक्ष्मण, मेरी सहायता करो!”
जटायु और रावण का युद्ध
जब रावण सीता का हरण कर अपने रथ में ले जा रहा था, तब जटायु नामक एक वृद्ध गरुड़ ने इसे देखा। जटायु ने सोचा कि यह एक अधर्म का कार्य है और उसने रावण को रोकने का प्रयास किया। जटायु ने रावण के रथ के सामने आकर उसे चेतावनी दी।
जटायु (रावण से): “हे रावण, तुमने यह अधर्म का कार्य किया है। सीता माता को उनके पति राम से दूर ले जाना महापाप है। मैं तुम्हें चेतावनी देता हूँ कि सीता को तुरंत छोड़ दो और अपने पाप का प्रायश्चित करो।”
रावण (हँसते हुए): “जटायु, तुम एक वृद्ध पक्षी हो। तुम मेरा सामना नहीं कर सकते। अगर तुम मेरे मार्ग में आए, तो तुम्हारा अंत निश्चित है।”
जटायु का साहस
जटायु ने रावण की धमकी की परवाह न करते हुए उस पर आक्रमण कर दिया। जटायु ने अपनी चोंच और पंजों से रावण के रथ पर प्रहार किया। रावण और जटायु के बीच एक भीषण युद्ध हुआ।
जटायु (रावण से लड़ते हुए): “रावण, मैं सीता माता की रक्षा के लिए अपने प्राण भी त्याग दूंगा। अधर्म का अंत होना ही चाहिए।”
रावण को जटायु की वीरता का सामना करना कठिन हो गया। उसने अपने दसों सिरों से जटायु पर प्रहार करना शुरू किया। जटायु ने वीरता से रावण का सामना किया, लेकिन उसकी वृद्ध अवस्था के कारण वह ज्यादा देर तक टिक नहीं सका।
रावण (क्रोधित होकर): “जटायु, अब तुम्हारा अंत आ चुका है। तुम्हारे प्रहार मुझे रोक नहीं सकते।”
जटायु का पराजय
रावण ने अपनी तलवार से जटायु के पंख काट दिए और उसे गंभीर रूप से घायल कर दिया। जटायु गिर पड़ा और सीता को अपने साथ ले जाते हुए रावण ने उड़ान भरी।
सीता (विलाप करते हुए): “जटायु, तुमने मेरी रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। राम और लक्ष्मण को मेरा संदेश देना कि मैं लंका में हूँ।”
सीता की खोज
राम और लक्ष्मण जब वापस आए, तो उन्होंने कुटिया को खाली पाया और सीता के हरण का पता चला। वे सीता की खोज में वन-वन भटकने लगे।
राम (लक्ष्मण से): “लक्ष्मण, सीता कहीं दिखाई नहीं दे रही। हमें हर ओर खोज करनी होगी।”
लक्ष्मण (दृढ़ता से): “भैया, हम सीता भाभी को ढूंढ़ निकालेंगे। हमें हर दिशा में जाना होगा।”
राम और लक्ष्मण ने कई ऋषि-मुनियों से सीता के बारे में पूछा, लेकिन किसी को कुछ पता नहीं था। राम और लक्ष्मण जब सीता की खोज में वन-वन भटक रहे थे, तब उन्हें जटायु घायल अवस्था में मिले। जटायु ने अंतिम क्षणों में राम और लक्ष्मण को सीता के हरण और रावण के बारे में सूचित किया।
राम (दुखी होकर): “जटायु, यह क्या हुआ? तुम इतनी गंभीर अवस्था में कैसे पहुँचे?”
जटायु (कमजोर आवाज में): “राम, रावण ने सीता का हरण कर लिया है। मैंने उसे रोकने का प्रयास किया, लेकिन मैं असफल रहा। वह सीता को लंका ले गया है।”
राम और लक्ष्मण ने जटायु की वीरता को सराहा और उनका अंतिम संस्कार पूरे सम्मान के साथ किया।
राम (संवेदनापूर्वक): “जटायु, तुम्हारा यह बलिदान कभी नहीं भुलाया जाएगा। तुमने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी है। मैं वचन देता हूँ कि सीता को वापस लाने के लिए हर संभव प्रयास करूँगा।”
लक्ष्मण (भावुक होकर): “जटायु, तुम्हारी वीरता और त्याग हम सभी के लिए प्रेरणास्त्रोत है।”
जटायु और रावण के बीच का यह युद्ध हमें यह सिखाता है कि सच्चाई और धर्म के पक्ष में खड़े होने के लिए किसी भी प्रकार की बलिदान देने के लिए तैयार रहना चाहिए। जटायु का साहस और त्याग हमें यह प्रेरणा देता है कि अधर्म के खिलाफ लड़ाई में हमें हमेशा सत्य का साथ देना चाहिए, चाहे हमें कितनी भी कठिनाइयों का सामना क्यों न करना पड़े। जटायु का बलिदान राम और लक्ष्मण के लिए सीता की खोज में महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ और इस घटना ने उन्हें रावण के विरुद्ध अपने अभियान में और अधिक दृढ़ता प्रदान की।
सबरी के बेर
एक दिन, जब श्रीराम और लक्ष्मण वन में यात्रा कर रहे थे, वे मुनि अश्रम के निकट पहुँचे। वहां उन्हें एक वृद्धा मुनि सबरी मिलीं। सबरी एक दीन-हीन लेकिन भक्ति में लीन साधिका थीं। उनके आश्रम में केवल बेर (फल) के झाड़ थे, और सबरी ने उन बेरों को कई सालों से संजोकर रखा था।
सबरी: (मुस्कराते हुए) “हे श्रीराम, आप यहाँ कैसे आए हैं? कृपया मेरे छोटे से आश्रम में पधारें।”
राम: “माँ, हमें आपसे मिलने की बहुत खुशी है। कृपया बताएं, आपके आश्रम में किस प्रकार की सेवा की जा सकती है?”
सबरी: “हे राम, मेरे पास कुछ भी नहीं है जो आपके योग्य हो। बस ये बेर हैं, जिन्हें मैंने अपनी भक्ति से संजोकर रखा है। कृपया इन्हें स्वीकार करें।”
राम: “माँ, इन बेरों को मैं खुशी से स्वीकार करूंगा। आपके भक्ति का मूल्य इससे कहीं अधिक है।”
सबरी ने एक-एक बेर राम को दिये। बेर दिखने में कांटे वाले और गंदे थे, लेकिन राम ने उन्हें बहुत प्यार और सम्मान के साथ खा लिया। उन्होंने कहा:
राम: “माँ, आपकी भक्ति और प्रेम ने इन बेरों को अमृत बना दिया है। मैं इनके स्वाद को सदा याद रखूंगा।”
लक्ष्मण: (नकली हंसी के साथ) “भाई, ये बेर तो साधारण से ही दिखते हैं। लेकिन आप सच्चे भक्त के प्रेम को समझते हैं।”
राम: “लक्ष्मण, भक्ति और प्रेम का मूल्य हमेशा बाहरी दिखावट से नहीं, बल्कि दिल की गहराई से मापा जाता है। सबरी ने अपने पवित्र हृदय से ये बेर हमें भेंट दिए हैं।”
इस घटना से यह सिखने को मिलता है कि सच्ची भक्ति और प्रेम का कोई मूल्य नहीं होता। सबरी की सच्ची भक्ति और अर्पण ने साधारण बेरों को भी खास बना दिया। यह भाग रामायण के भक्ति और साधना के महत्व को दर्शाता है।
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