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कालीसर का अंधेरा और हवेली का रहस्य
✍ Daya Shankar

अध्याय 1 – गाँव का डर

कालीसर गाँव का नाम सुनते ही आसपास के गाँवों के लोग ठिठक जाते थे। पहाड़ों के बीच बसा ये छोटा-सा गाँव दिन में जितना साधारण लगता था, रात में उतना ही पराया और डरावना हो जाता।

दिन में चौपाल पर गप्पें हांकते बुज़ुर्ग, खेतों में खेलते बच्चे, और बैलगाड़ियों की खड़खड़ाहट—सब कुछ किसी और गाँव जैसा ही था। मगर जैसे ही सूरज पहाड़ों के पीछे ढलता, पूरा गाँव मानो किसी अदृश्य आदेश का पालन करता—हर दरवाज़ा बंद, हर खिड़की जड़ी हुई, और हर दीया बुझा हुआ।

सबसे अजीब बात यह थी कि यहाँ रात में कुत्ते तक नहीं भौंकते थे। मानो किसी ने उनके गले दबा दिए हों। न कोई झींगुर की आवाज़, न उल्लू की हूट… सिर्फ़ घना सन्नाटा।

गाँव का नौजवान मनोज अक्सर शहर से आए लोगों को यही कहता—कालीसर की रात, मौत से उधार ली हुई है।”

बच्चों को सख़्त हिदायत थी कि शाम ढलने के बाद खेलना मना है। अगर कोई बच्चा गलती से देर कर दे, तो उसके माँ-बाप घबराहट में उसे खींचकर घर के भीतर ले जाते, जैसे वो अपने बच्चे को अंधेरे से छीन रहे हों।

गाँव के सबसे बुज़ुर्ग, पंडित हरिनारायण, अक्सर कहा करते थे— ये ज़मीन हमारी सिर्फ़ दिन में है। रात को ये हमें छोड़ देती है… और किसी और की हो जाती है।”

लोग पूछते, किसकी?”
पंडित सिर्फ़ एक शब्द कहते— उनकी।”
और फिर चुप हो जाते।

गाँव के बीचोबीच एक पुराना पीपल का पेड़ था। कहते हैं कि उसकी जड़ों के नीचे कई ऐसी लाशें गड़ी हैं, जो कभी गाँव से मिली ही नहीं। गायब हुए लोग, जिनका नाम तक कोई ज़ुबान पर नहीं लाता।

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